आंखें खुली हो या बंद
नजर कुछ नही आता हैं,
नपुंसक-सी इस दुनिया में
हर कोई अपनी अकड़ दिखाता है।

कैसे जीवन 'बसर' करे इसमें
यह आवाज अब झुंझलाहती है।

देखकर सबकी रगों में खून
मतलब से बातें किया करते हैं,
'दव' कोड़ी का पुतला भी 
हवा में उड़ान भरे फिरते हैं।

सब एक नही है
नही है एक सब
कोई रेहड़ी, फुटपाथ पर हैं
कोई बिन खड़ाऊ चले फिरते हैं,
वो बहु-मंजिला वाले 
बेमौत मरा करते हैं।

बैठा है एक सड़क किनारे
टकटकी-सी नजरे लगाये,
ताप रहा है रोटी-बाटी
एक चिंगारी के अलाव से।

वो बैठे महलों में
अपनी औकात जगजाहिर करा फिरते हैं,
नजर जो पड़ जाएं
सड़क किनारे 'तापो' पर
मार ठोकरे
ऊपर मुंह चला करते हैं।

सैंकड़ों एकड़ जमीन
बेवजह परकोटे में डाल दी है,
वो बड़े महलों वाले आते हैं
4-5 मोर्निंग वॉक के चक्कर लगा
अपने को स्वस्थ बताते हैं।

अरे मूर्खो, हां यह सच हैं
परवाह तो हमारी
यह हाइकोर्ट भी नहीं करता है,
जिसकी चौखट पर हम
अपने बच्चे को 'दूध' पिला रहे होते हैं।

तुमको-हमको-सबको
नही कुछ लगता हैं,
जगह-जगह अब मुझे 
बस अंधकार ही अंधकार दिखता है।।

© संजय ग्वाला