दिल रो रहा है मेरा...
देख कर यहां की बदहाली।
परवाह ना किसी को...
अपनों के अधिकारों की।
कैसी हो गई हैं जनता...
जिन्हें अव्यवस्था नज़र नही आती हैं।
फेर कर मुँह दूसरी ओर...
समझदारी के गीत गाती हैं।
कितना बदल गया है समाज...
मुफ्तखोरी का नशा चढ़ा हैं।
देखो जिधर भी, लालच हैं...
पेट भर कुछ भी खाने का।
कब बदलेंगे ओर आवाज़ उठाएंगे...
हक़ की मशाल को, कैसे सुलगाएंगे।
यह सवाल अब तड़पाता हैं...
चैन की नींद सोने वाले को,
कैसे; कब, जगाएंगे।।
©संजय ग्वाला
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